राष्ट्रीय शिक्षा नीति (National Education Policy 2020)

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (National Education Policy 2020), 21वी शताब्दी की पहली शिक्षा नीति है जिसका लक्ष्य हमारे देश के विकास. के लिए अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करना है। यह नीति भारत की परंपरा और सांस्कृतिक मूल्यों के आधार को बरक़रार रखते हुए, 21 वीं सदी की शिक्षा के लिए आंकक्षात्मक लक्ष्य, जिनमें एसडीजी 4 शामिल हैं, के संयोजन में शिक्षा व्यवस्था, उसके नियमन और गवर्नस सहित, सभी पक्षों के सुधार और पुनर्गठन का प्रस्ताव रखती है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (National Education Policy 2020) : एक परिचय

शिक्षा: एक मूलभूत आवश्यकता

शिक्षा पूर्ण मानव क्षमता को प्राप्त करने, एक न्यायसंगत और न्यायपूर्ण समाज के विकास और राष्ट्रीय विकास को बढ़ावा देने के लिए मूलभूत आवश्यकता है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक सार्वभौमिक पहुँच प्रदान करना वैश्विक मंच पर सामाजिक न्याय और समानता, वैज्ञानिक उन्नति, राष्ट्रीय एकीकरण और सांस्कृतिक संरक्षण के संदर्भ में भारत की सतत प्रगति और आर्थिक विकास की कुंजी है। सार्वभौमिक उच्चतर स्तरीय शिक्षा वह उचित माध्यम है, जिससे देश की समृद्ध प्रतिभा और संसाधनों का सर्वोत्तम विकास और संवर्द्धन व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व की भलाई के लिए किया जा सकता है। अगले दशक में भारत दुनिया का सबसे युवा जनसंख्या वाला देश होगा और इन युवाओं को उच्चतर गुणवत्तापूर्ण शैक्षिक अवसर उपलब्ध कराने पर ही भारत का भविष्य निर्भर करेगा।

National Education Policy
National Education Policy

सतत विकास एजेंडा 2030 के लक्ष्य

भारत द्वारा 205 में अपनाए गए सतत विकास एजेंडा 2030 के लक्ष्य 4 (एसडीजी 4) में परिलक्षित वैश्विक शिक्षा विकास एजेंडा के अनुसार विश्व में 2030 तक “सभी के लिए समावेशी और समान गुणवत्तायुक्त शिक्षा सुनिश्चित करने और जीवन-पर्यत शिक्षा के अवसरों को बढ़ावा दिए जाने” का लक्ष्य है। इस तरह के उदात्त लक्ष्य के लिए संपूर्ण शिक्षा प्रणाली को समर्थन और अधिगम को बढ़ावा देने के लिए पुनर्गठित करने की आवश्यकता होगी, ताकि सतत विकास के लिए 2030 एजेंडा के सभी महत्वपूर्ण टार्गेट और लक्ष्य (एसडीजी) प्राप्त किए जा सकें।

बहु-विषयक अधिगम की आवश्यकता

ज्ञान के परिदृश्य में पूरा विश्व तेजी से परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। बिग डेटा, मशीन लर्निंग और आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस जैसे क्षेत्रों में हो रहे बहुत से वैज्ञानिक और तकनीकी विकास के चलते एक ओर विश्व भर में अकुशल कामगारों की जगह मशीनें काम करने लगेंगी और दूसरी ओर डेटा साइंस, कंप्यूटर साइंस और गणित के क्षेत्रों में ऐसे कुशल कामगारों की जरूरत और मांग बढ़ेगी जो विज्ञान, समाज विज्ञान और मानविकी के विविध विषयों में योग्यता रखते हों। जलवायु परिवर्तन, बढ़ते प्रदूषण और घटते प्राकृतिक संसाधनों की वजह से हमें ऊर्जा, भोजन, पानी, स्वच्छता आदि की आवश्यकताओं को पूरा करने के नए रास्ते खोजने होंगे और इस कारण भी जीव विज्ञान, रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, कृषि, जलवायु विज्ञान, और समाज विज्ञान के क्षेत्रों में नए कुशल कामगारों की जरूरत होगी। महामारी और महामारी के बढ़ते उद्धव संक्रामक रोग प्रबंधन और टीकों के विकास में सहयोगी अनुसंधान और परिणामी सामाजिक मुद्दे बहु-विषयक अधिगम की आवश्यकता को बढ़ाते हैं। मानविकी और कला की मांगबढेगी , क्योंकि भारत एक विकसित देश बनने के साथ-साथ दुनिया की तीन सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक बनने की ओर अग्रसर है।

शिक्षार्थियों के संतुलित विकास

रोज़गार और वैश्विक पारिस्थितिकी में तीव्र गति से आ रहे परिवर्तनों की वजह से यह जरुरी हो गया है कि बच्चे, जो कुछ सिखाया जा रहा है, उसे तो सीखें ही और साथ ही वे सतत सीखते रहने की कला भी सीखें। इसलिए शिक्षा में विषयवस्तु को बढ़ाने की जगह जोर इस बात पर अधिक होने की ज़रूरत है कि बच्चे समस्‍या -समाधान और तार्किक एवं रचनात्मक रूप से सोचना सीखें, विविध विषयों के बीच अंतर्सबंधों को देख पायें, कुछ नया सोच पायें और नयी जानकारी को नए और बदलती परिस्थितियों या क्रम उपयोग में ला पायें। जरूरत है कि शिक्षण प्रक्रिया शिक्षार्थी-केन्द्रित हो, जिज्ञासा, खोज, अनुभव और संवाद के आधार ‘पर संचालित हो, लचीली हो और समग्रता और समन्वित रूप से देखने-समझने में सक्षम बनाने वाली और, अवश्य ही, रुचिपूर्ण हो। शिक्षा शिक्षार्थियों के जीवन के सभी पक्षों और क्षमताओं का संतुलित विकास करे इसके लिए पाठ्यक्रम में विज्ञान और गणित के अलावा बुनियादी कला, शिल्प, मानविकी, खेल और फिटनेस, भाषाओं, साहित्य, संस्कृति और मूल्य का अवश्य ही समावेश किया जाये। शिक्षा से चरित्र निर्माण होना चाहिए, शिक्षार्थियों में नैतिकता, तार्किकता, करुणा और संवेदनशीलता विकसित करनी चाहिए और साथ ही रोज़गार के लिए सक्षम बनाना चाहिए।

सीखने के परिणामों की वर्तमान स्थिति और जो आवश्यक है, उनके बीच की खाई को प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और उच्चतर शिक्षा के माध्यम से शिक्षा में उच्चतम गुणवत्ता, इक्किटी और सिस्टम में अखंडता लाने वाले प्रमुख सुधारों के जरिए पाटा जाना चाहिए।

2040 तक भारत के लिए एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का लक्ष्य होना चाहिए जो कि किसी से पीछे नहीं है. एक सी शिक्षा व्यवस्था जहां किसी भी सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने वाले शिक्षार्थियों को समान रूप से सर्वोच्च गुणवत्ता की शिक्षा उपलबध हो।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (National Education Policy) 2020 का लक्ष्य

यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति (National Education Policy) 2020, 21वी शताब्दी की पहली शिक्षा नीति है जिसका लक्ष्य हमारे देश के विकास. के लिए अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करना है। यह नीति भारत की परंपरा और सांस्कृतिक मूल्यों के आधार को बरक़रार रखते हुए, 21 वीं सदी की शिक्षा के लिए आंकक्षात्मक लक्ष्य, जिनमें एसडीजी 4 शामिल हैं, के संयोजन में शिक्षा व्यवस्था, उसके नियमन और गवर्नस सहित, सभी पक्षों के सुधार और पुनर्गठन का प्रस्ताव रखती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति प्रत्येक व्यक्ति में निहित रचनात्मक क्षमताओं के विकास पर विशेष जोर देती है। यह नीति इस सिद्धांत पर आधारित है कि शिक्षा से न केवल साक्षरता और संख्याज्ञान जैसी ‘बुनियादी क्षमताओं’ के साथ-साथ उच्चतर स्तर’ की तार्किक और समस्या-समाधान संबंधी संज्ञानात्मक क्षमताओं का विकास होना चाहिए बल्कि नैतिक, सामाजिक और भावनामक स्तर पर भी व्यक्ति का विकास होना आवश्यक है।

प्राचीन भारत में शिक्षा का लक्ष्य

प्राचीन और सनातन भारतीय ज्ञान और विचार की समृद्ध परंपरा के आलोक में यह नीति तैयार की गयी है। ज्ञान प्रज्ञा , सत्य की खोज को भारतीय विचार परंपरा और दर्शन में सदा सर्वोच्च मानवीय लक्ष्य माना जाता था। प्राचीन भारत में शिक्षा का लक्ष्य सांसारिक जीवन अथवा स्कूल के बाद के जीवन की तैयारी के रूप में ज्ञान अर्जन नहीं बल्कि पूर्ण आत्म-ज्ञान और मुक्ति के रूप में माना गया था। तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला और वल्लभी जैसे प्राचीन भारत के विश्व स्तरीय संस्थानों ने अध्यापन के विविध क्रम शिक्षण और शोध के ऊंचे प्रतिमान स्थापित किये थे और विभिन्न पृष्ठभूमि और देशों से आने वाले विद्यार्थियों और विद्वानों को लाभाग्वित किया था। इसी शिक्षा व्यवस्था ने चरक, शुश्रुत, आर्यभट, वराहमिहिर, भासकराचार्य, ब्रह्मगुप्त, चाणक्य, चक्रपाणि दत्ता, माधव, पाणिनि, पतंजति, नागार्जुन, गौतम, पिंगला, शंकर देव, मैत्रियी ,गार्गी और घिरुवल्लुवर जैसे अनेकों महान विद्वानों को जन्म दिया। इन विद्वानों ने वैश्विक स्तर पर ज्ञान के विविध क्षेत्रों, जैसे गणित, खगोल विज्ञान, धातु विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान और शल्य चिकित्सा, सिविल इंजीनियरिंग, भवन निर्माण, नौकायान-निर्माण और दिशा ज्ञान, योग, ललित कला, शतरंज इत्यादि में प्रामाणिक रूप से मौलिक योगदान किये। भारतीय संस्कृति और दर्शन का विश्व में बड़ा प्रभाव रहा है। वैश्विक महत्व की इस समृद्ध विरासत को आने वाली पीढ़ियों के लिए न सिर्फ सहेज कर संरक्षित रखने की जरूरत है बल्कि हमारी शिक्षा व्यवस्था द्वारा उस पर शोध कार्य होने चाहिए, उसे और समृद्ध किया जाना चाहिए और नए-नए उपयोग भी सोचे जाने चाहिए।

शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक की भूमिका

शिक्षा व्यवस्था में किये जा रहे बुनियादी बदलावों के केंद्र में अवश्य ही शिक्षक होने चाहिए। शिक्षा की नई नीति को निश्चित तौर पर, हर स्तर पर शिक्षकों को समाज के सर्वाधिक सम्माननीय और अनिवार्य सदस्य के रूप में पुनः स्थान देने में सहायता करनी होगी क्योंकि शिक्षक ही नागरिकों की हमारी अगली पीढ़ी को सही मायने में आकार देते हैं। इस नीति द्वारा शिक्षकों को सक्षम बनाने के लिए हर संभव कदम उठाये जाने की आवश्यकता है जिससे वे अपने कार्य को प्रभावी रूप से कर सकें। नयी शिक्षा नीति को हर स्तर पर शिक्षण के पेशे में सबसे होनहार लोगों का चयन करने में सहायता करनी होगी जिसके लिए उनकी आजीविका, सम्मान, मान-मर्यादा और स्वायत्तता सुनिश्चित करनी होगी, साथ ही तंत्र में गुणवत्ता नियंत्रण और जवाबदेही की बुनियादी प्रक्रियाएं भी स्थापित करनी होंगी।

नयी शिक्षा नीति में विद्यार्थी की भूमिका

नयी शिक्षा नीति को सभी विद्यार्थियों के लिए, चाहे उनका निवास स्थान कहीं भी हो, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध करानी होगी। इस कार्य में ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रह रहे समुदायों, वंचित और अल्प-प्रतिनिधित्व वाले समूहों पर विशेष ध्यान दिए जाने की जरूरत होगी। शिक्षा बराबरी सुनिश्चित करने का बड़ा माध्यम है और इसके द्वारा समाज में समानता, समावेशन और सामाजिक-आर्थिक रूप से गतिशीलता हासिल की जा सकती है। ऐसे समूहों के सभी बच्चों के लिए, परिस्थितिजन्य बाधाओं के बावजूद, हर संभव पहल की जानी चाहिए जिससे वे शिक्षा व्यवस्था में प्रवेश भी पा सकें और उत्कृष्ट प्रदर्शन भी कर सकें। इन सभी बातों का नीति में समावेश भारत की समृद्ध विविधता और संस्कृति के प्रति सम्मान रखते हुए और साथ ही देश की स्थानीय और वैश्विक संदर्भ में आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए होना चाहिए।

निष्कर्ष

भारत के युवाओं को भारत देश के बारे में और इसकी विविध सामाजिक, सांस्कृतिक, और तकनीकी आवश्यकताओं सहित यहाँ की अद्वितीय कला, भाषा और ज्ञान परंपराओं के बारे में ज्ञानवान बनाना राष्ट्रीय गौरव, आत्मविश्वास, आत्मज्ञान, परस्पर सहयोग और एकता की दृष्टि से और भारत के सतत ऊंचाइयों की और बढ़ने की दृष्टि से अतिआवश्यक है।

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