मूल्यांकन [Evaluation] का अर्थ विशेषताएं प्रकार महत्व व प्रक्रिया Pdf Download

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 में भाषा शिक्षण में मूल्यांकन एवं एक समग्र भाषिक निपुणता की बात की गई है। आकलन सीखने-सिखाने और पढ़ने-पढ़ाने की प्रक्रिया का अभिन्न हिस्सा है। सभी बच्चों के सीखने की एक अपनी गति होती है और सीखने के तरीके भी भिन्न-भिन्न होते हैं। भाषा के सन्दर्भ में, आकलन का उद्देश्य है भाषा की समझ . इसे विभिन्न संदर्भों में, उपयोग करने की क्षमता और सौंदर्यपरक पहलू परख सकने की क्षमता का मापन करना . एक अच्छा मूल्यांकन और परीक्षा लेने के तरीके सीखने सीखाने की प्रक्रिया का अभिन्न अंग बन सकते हैं, जो अध्यापक व बच्चे दोनों को ही अलोचनात्मक प्रतिपुष्टि देते हैं।

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आकलन-एवं-मूल्यांकन aaklan and mulyankan Curriculum Fixation
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मूल्यांकन [Evaluation] की अवधारणा

जब तक परीक्षाएँ बच्चों की पाठ्यपुस्तकीय ज्ञान को याद करने की क्षमताओं का परीक्षण करती रहेंगी, तब तक पाठ्यचर्या को सीखने की तरफ मोड़ने के सभी प्रयास विफल होते रहेंगे। पहला बिंदु यह है कि ज्ञान आधारित विषय क्षेत्रों में परीक्षाएँ ये समझ पाएँ कि बच्चों ने क्या सीखा और उस ज्ञान को समस्या सुलझाने और व्यवहार में लाने की उनकी क्षमता को जाँच पाएँ। इसके अलावा, परीक्षाएँ यह भी जाँचने में सक्षम होनी चाहिए कि विद्यार्थियों की सोचने की प्रक्रियाएँ कैसी हैं तथा यह पता लगा पाएँ कि क्या शिक्षार्थी ने यह सीखा। कि जानकारी कहाँ मिलती है, उस जानकारी का इस्तेमाल कैसे करते हैं और उसका विश्लेषण और मूल्यांकन कैसे करते हैं।

आकलन के लिए जो प्रश्न निर्धारित किए जाते हैं उन्हें किताब में दी गई जानकारी से आगे बढ़ाने की जरूरत है। कितनी ही बार बच्चों का अधिगम इसलिए बहुत ही सीमित रह जाता है क्योंकि शिक्षक उन उत्तरों को स्वीकार नहीं करते जो कुंजियों में दिए गए उत्तरों से भिन्न होते हैं।

मूल्यांकन का शाब्दिक अर्थ

मुल्यांकन (Mulyankan) : यह दो शब्दों से मिलकर बना हैं- मूल्य-अंकन। यह अंग्रेजी के Evaluation शब्द का हिंदी रूपांतरण हैं। मापन जहाँ किसी वस्तु या व्यक्ति के गुणों को अंक प्रदान करता हैं, वही मुल्यांकन उन अंकों का विश्लेषण करता हैं और उनकी तुलना दूसरों से करके एक सर्वोत्तम वस्तु या व्यक्ति का चयन करता हैं।

मूल्यांकन [Evaluation] के प्रकार

1- संरचनात्मक मूल्यांकन
2- योगात्मक मूल्यांकन

1- संरचनात्मक मूल्यांकन –

निर्माणाधीन कार्यो के मध्य जब किसी का मूल्यांकन किया जाता है उसे संरचनात्मक मूल्यांकन कहते हैं शिक्षा से इसको देखा जाए तो जब छात्र किसी कक्षा में होते हैं तो उनका यूनिट टेस्ट या टॉपिक टेस्ट लिया जाता हैं उसे ही संरचनात्मक मूल्यांकन कहा जाता हैं।

2- योगात्मक मूल्यांकन –

इसका प्रयोग अंत में किया जाता हैं जैसा कि इसके नाम से ही पता चल रहा हैं योग। अर्थात अंत में जब छात्रों की वार्षिक परीक्षा ली जाती हैं उसे ही योगात्मक मूल्यांकन कहा जाता है

मूल्यांकन का महत्व

मूल्यांकन के द्वारा छात्रों के व्यवहार उनकी रुचि, अभिरुचि का पता लगाया जाता हैं। इसके द्वारा छात्रों के मानसिक स्तर की जांच कर उनको उसके स्तर के अनुसार उन्हें कक्षा आवंटित की जाती हैं।

  • कक्षा में प्रवेश व उन्नत हेतु मूल्यांकन किया जाता हैं।
  • इसके द्वारा छात्रों के मध्य उनके गुणों में अंतर कर पाना संभव होता हैं।
  • मूल्यांकन के द्वारा छात्रों को मेधावी, मंद-बुध्दि और औसत स्तर में विभक्त कर उन्हें शिक्षा प्रदान की जाती हैं।
  • इसके द्वारा भिन्नता के सिद्धांत का अच्छे से ख्याल रखा जाता हैं, एवं उसके अनुरूप उनका विकास करने हेतु शिक्षण विधियों एवं प्रविधियों का निर्माण किया जाता हैं।

अंक प्रमाण पत्र की बजाय के मूल्यांकन की लिखित रिपोर्ट कार्ड द्वारा तैयार करने से बच्चे के सम्पूर्ण विकास व गति के बारे में अध्यापक को सोचने का मौका मिलता है। अंक बिना दिए भी बच्चों के विकास के लिए आकलन किया जा सकता है। भागीदारी, रुचि, और जुड़ाव तथा जिस स्तर तक क्षमताओं एवं कौशलों का विकास हुआ ये कुछ सूचक हैं जिनके आधार पर शिक्षक यह समझ बना सकते हैं कि बच्चों को इन गतिविधियों से कितना फायदा हुआ है। बच्चों को अगर अपने अधिगम के बारे में खुद बताने के लिए कहा जाए तो उससे भी शिक्षकों में बच्चों की शैक्षिक उन्नति संबंधी अंतर्दृष्टि विकसित होगी और पाठ्यचर्या एवं शिक्षाशास्त्रीय सुधार करने के आधार मिलेंगे।

शैक्षिक मूल्यांकन के उद्देश्य

  • राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 का आकलन के उद्देश्यों एवं प्रयोजन के प्रति क्या नजरिया हैं?
  • रिपोर्ट कार्ड बच्चों और माता-पिता के सामने बच्चों के कई क्षेत्रों के विकास पर समावेशी समझ दृष्टिकोण एवं सकारात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
  • विश्वनीय आकलन के लिए सूचना आधारित प्रश्न ना होकर, बहुउत्तरीय प्रश्न होने चाहिए जिससे में समझा जा सके कि बच्चों ने क्या सीखा और उनके सोचने की प्रक्रिया को कैसे आगे बढ़ाया जा सकता है आदि बातों पर हम अपनी समझ बना पाएंगे।


मूल्यांकन का यह प्रयोजन नहीं है :

  • बच्चों को डर के दबाव में अध्ययन के लिए प्रेरित करना
  • ‘होशियार’, ‘समस्यात्मक विद्यार्थी ऐसे विभाजन अधिगम की सारी जिम्मेदारी विद्यार्थी पर डाल देते हैं और शिक्षाशास्त्र की भूमिका पर से ध्यान हटा देते हैं।
  • उन बच्चों को पहचानना जिन्हें उपचारात्मक शिक्षण की आवश्यकता है इसमें औपचारिक आकलन की प्रतीक्षा किए बिना शिक्षक, शिक्षण के दौरान ही शिक्षाशास्त्रीय योजना और व्यक्तिगत ध्यान देकर यह कर सकता है)।
  • अधिगम की कठिनाइयों और समस्या क्षेत्रों की पहचान करना – अवधारणात्मक कठिनाइयों के व्यापक सूचक मूल्यांकन और परीक्षा से पता किए जा सकते हैं। निदान के लिए परीक्षा के विशेष औजारों की और प्रशिक्षण की जरूरत होती हैं। यह ज़रूरत साक्षरता और संख्यनन के आधारभूत क्षेत्रों के लिए है न कि विषयों के लिए।

मूल्यांकन की विशेषताएं

मूल्यांकन की 7 विशेषताएं इस प्रकार से हैं :

  • क्रमबद्धता
  • वस्तुनिष्ठता
  • विश्वसनीयता
  • वैधता
  • व्यवहारिकता
  • व्यापकता
  • शिक्षार्थी की सहभागिता
क्रमबद्धता

मूल्यांकन कार्यक्रम में क्रमिकता या क्रमबद्धता का विशेष महत्व है। मूल्यांकन में क्रमिकता न होने पर शिक्षार्थी या कार्यकर्ता को अपनी प्रगति के बारे में अन्त तक कोई सूचना नहीं मिल पाती है। अत: इसके अभाव में शिक्षार्थी में कार्य के प्रति त्रुटिपूर्ण अभिव्यक्ति विकसित हो सकती है, वह त्रुटिपूर्ण कार्यविधि अपना सकता है तथा गलत निष्कर्ष निकाल सकता है।

वस्तुनिष्ठता

एक उत्तम परीक्षा का वस्तुनिष्ठ होना अति आवश्यक है। वस्तुनिष्ठता का अर्थ यह है कि मूल्यांकन में व्यक्तिगत पक्षों का प्रभाव नहीं होना चाहिए। स्पष्ट है कि ज्ञानात्मक क्षेत्र में मूल्यांकन में वस्तुनिष्ठता भावात्मक क्षेत्र की तुलना में अधिक होगी। ज्ञानात्मक क्षेत्र में यह उच्च स्तर की अपेक्षा निम्न स्तर पर अधिक वस्तुनिष्ठ होगा।

विश्वसनीयता

एक अच्छा मूल्यांकन विश्वसनीय भी होना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि बार-बार तथा अनेक लोगों द्वारा मूल्यांकन किए जाने पर भी उसके निष्कर्षों में कोई अंतर नहीं आए। अतः स्पष्ट है कि विश्वसनियता के लिए वस्तुनिष्ठता एक पूर्व आवश्यकता है। इसलिए निबंधात्मक परीक्षा की अपेक्षा वस्तुनिष्ठ परीक्षा अधिक विश्वसनीय होती है।

वैधता

एक उत्तम परीक्षण का वैध होना भी आवश्यक है। वैधता से तात्पर्य परीक्षण की सार्थकता से है अर्थात परीक्षण जिस मापन के लिए बनाया गया है, उसे ही उसका मापन करना चाहिए। इसलिए कोई मूल्यांकन प्रक्रिया तभी वैध कहलाती है जब वह उसी गुण, पक्ष, विशेषता आदि का मापन करती है जिसका मापन करना अभीष्ट होता है। अत: पाठ्यक्रम के मूल्यांकन में उन्हीं पक्षों पर ध्यान केंद्रित होना चाहिए जिन पक्षों पर वह पाठ्यक्रम आधारित है।

व्यावहारिकता

एक अच्छी परीक्षा की प्रमुख विशेषता यह होती है कि उसका प्रयोग, अंकन एवं प्राप्त प्रदत्तो का अर्थापन करना सरल होता है। किसी भी परीक्षण की रचना शिक्षार्थियों की अधिगम उपलब्धियों के मूल्यांकन के लिए की जाती है। अत: परीक्षण का व्यवहारिक होना अति आवश्यक होता है। इसलिए मूल्यांकन कार्यक्रम इस प्रकार निर्धारित किया जाना चाहिए जो व्यवहारिक भी हो।

व्यापकता

किसी मूल्यांकन कार्यक्रम में सभी पक्षों पर सभी शैक्षिक उद्देश्यों की जांच की जानी चाहिए। कुछ क्षेत्रों में जांच कार्य कठिन अवश्य होता है, किंतु इसके लिए भी कोई ना कोई उपाय निकालने का प्रयास करना चाहिए। परीक्षण उपकरणों के रूप में मानकीकृत परीक्षाओं के अतिरिक्त शिक्षक निर्मित परीक्षाओं, विधिवत पर्यवेक्षण, अभिलेख, स्तरमापी, प्रश्नावली आदि अनेक विधियों प्रवृत्तियों को भी मूल्यांकन हेतु काम में लाया जा सकता है।

शिक्षार्थी की सहभागिता

इसके अनुसार छात्र ज्ञान प्राप्त करते हैं तथा शिक्षक, प्रधानाध्यापक एवं विशेष रूप से नियुक्त परीक्षक, उनके कार्यों का मूल्यांकन करते हैं। इस प्रकार से शिक्षार्थी और परीक्षक भी दो प्रथम वर्गों में विभक्त होते आए हैं, किंतु शिक्षार्थी मूल्यांकन प्रक्रिया में भाग लेते हैं। वास्तविकता तो यह है कि प्रत्येक छात्र स्वयं तथा अपने साथियों के व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों का निरंतर मापन एवं मूल्यांकन करता रहता है।

मूल्यांकन को पूर्ण रूप से शिक्षकों एवं बाह्य परीक्षकों को सौंप देने पर अधिगम अनुभवों की उपेक्षा होने की अधिक संभावना रहती है। इससे मूल्यांकन कार्य अपूर्ण रह जाता है तथा अधिगम प्रक्रिया को आवश्यक पुष्ठ पोषण नहीं मिल पाता है।

सतत व समावेशी मूल्यांकन को ही एक सार्थक मूल्यांकन माना गया है। हालांकि इस पर भी सावधानीपूर्वक विचार करने की ज़रूरत है कि इसका प्रभावी उपयोग करने के लिए कब लागू करना है। अगर मूल्यांकन को सार्थक रूप से लागू करना है और उसके आकलन की विश्वसनीयता रखनी है तो ऐसा मूल्यांकन शिक्षकों से बहुत ज्यादा समय देने की मांग करता है तथा यह मांग भी करता है कि वह सावधानी और कुशलता से रिकॉर्ड रखे।

अगर यह प्रक्रिया महज बच्चों के बोझ को बढ़ाए और सारी गतिविधियों को आकलन का जरिया बना दे और उन्हें शिक्षक की ताकत का अनुभव कराती रहे तो वह शिक्षा के प्रयोजन को ही विफल कर देती है। जब तक व्यवस्था ऐसे आकलन के लिए पर्याप्त रूप से तैयार नहीं है तब तक शिक्षकों के लिए यही बेहतर है कि वे आकलन के सीमित रूपों का ही उपयोग करें। लेकिन उसमें वे आयाम शामिल कर लें जिनसे आकलन सीखने के एक सार्थक दस्तावेज़ के रूप में उभर पाए।

अंततः आकलन में विश्वसनीयता को विकसित करने और बनाए रखने की जरूरत है जिससे वे प्रतिपुष्टिकरण की भूमिका को सार्थक रूप से निभाते रहें।

आकलन और मूल्यांकन

भारतीय शिक्षा में मूल्यांकन शब्द परीक्षा, तनाव और दुश्चिता से जुड़ा हुआ है। पाठ्यचर्या की परिभाषा और नवीनीकरण के सभी प्रयास विफल हो जाते हैं, अगर वे स्कूली शिक्षा प्रणाली में जड़ें जमाए मूल्यांकन और परीक्षा तंत्र के अवरोध से नहीं जूझ सकते। हमें परीक्षा के उन दुष्प्रभावों की चिंता है जो सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को सार्थक बनाने और बच्चों के लिए आनंददायी बनाने के प्रयासों पर पड़ते हैं। वर्तमान में बोर्ड की परीक्षाएँ स्कूली वर्षों में होने वाले हर आकलन और हर तरह के परीक्षण को नकारात्मक रूप से ही प्रभावित करती हैं। इसमें शाला पूर्व स्तर में होने वाला आकलन और परीक्षण भी शामिल हैं।

एक अच्छी मूल्यांकन और परीक्षा पद्धति सीखने की प्रक्रिया का अभिन्न अंग बन सकती है जिसमें शिक्षार्थी और शिक्षा तंत्र दोनों को ही विवेचनात्मक और आलोचनात्मक प्रतिपुष्टि से फायदा हो सकता है। यह भाग मूल्यांकन और आकलन को संबोधित करते हुए शुरू होता है क्योंकि ये सीखने-सिखाने की प्रक्रिया के लिए पाठ्यचर्या के भाग की तरह प्रासंगिक होते हैं।


मूल्यांकन की प्रक्रिया

पूर्व प्राथमिक चरण की कक्षा 1 से 2 तक

पूर्व प्राथमिक शिक्षा और प्राथमिक चरण की कक्षा 1 एवं 2 इस स्तर पर आकलन में विभिन्न क्षेत्रों में बच्चों की गतिविधियों पर दिए गए गुणात्मक कथन होने चाहिए और उनके स्वास्थ्य और शारीरिक विकास का आकलन होना चाहिए। यह आकलन रोज़मर्रा की अंतःक्रियाओं के दौरान किए गए अवलोकनों पर आधारित होने चाहिए। किसी भी कारणवश बच्चों की लिखित या मौखिक परीक्षा नहीं होनी चाहिए।

प्राथमिक चरण की कक्षा 3 से 8 तक

यहाँ कई तरीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है जिसमें मौखिक एवं लिखित परीक्षा और अवलोकन शामिल हैं। बच्चों को यह पता होना चाहिए कि उनका आकलन किया जा रहा है पर उसको उनकी शैक्षणिक प्रक्रिया के भाग की तरह प्रस्तुत करना चाहिए न कि डरावनी धमकी की तरह इस चरण पर उपलब्धि के लिए दिए गए अंक और गुणात्मक कथन उन क्षेत्रों के लिए बहुत जरूरी हैं जिन पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।

कक्षा 5 से बच्चों के स्व-मूल्यांकन को रिपोर्ट कार्ड में शामिल किया जा सकता है। बड़ी-बड़ी मासिक और वार्षिक परीक्षाओं की जगह समय समय पर छोटी-छोटी परीक्षाएँ होनी चाहिए। ऐसी परीक्षाएँ जिनमें परीक्षण का आधार मानदण्ड हो।

कक्षा 7 से सत्रीय परीक्षाएँ शुरू होनी चाहिए जब बच्चे ज्यादा बड़े हिस्से पढ़ने के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार हो और उत्तरों पर काम करते हुए परीक्षा में कुछ घंटे बिताने लायक हो जाएँ। रिपोर्ट कार्ड में फिर से स्वास्थ्य और पोषण पर सामान्य टिप्पणियाँ देने के साथ-साथ शिक्षार्थी के समग्र विकास पर विशिष्ट टिप्पणियाँ हाँ और माता-पिता के लिए सुझाव हों।

माध्यमिक तथा उच्च माध्यमिक की कक्षा 9 से 12 तक

माध्यमिक तथा उच्च माध्यमिक चरणों में कक्षा 9 से 12 पाठ्यचर्या के ज्ञान आधारित क्षेत्रों के लिए आकलन, परीक्षाओं परियोजनाओं की रिपोर्ट पर आधारित हो सकता है और साथ में शिक्षार्थी का स्व-आकलन भी शामिल हो। बाकी विषयों का आकलन अवलोकन एवं स्व-मूल्यांकन द्वारा किया जाना चाहिए।

रिपोर्ट में विद्यार्थियों के विभिन्न कौशलों / ज्ञान के क्षेत्रों और प्रतिशतांकों के बारे में अधिक विश्लेषण हो यह बच्चों को उन विषयों को समझने में मदद करेगा जिन पर उन्हें ध्यान देना चाहिए और उनके आगे के विकल्प चयन की प्रक्रिया के लिए एक आधार भी देगा।